मधु सक्सैना संवेदनशील सूक्ष्म भावों की रचनाकार है। इसीलिए उनकी लेखनी काव्य तत्व की अनुरागिनी बन जाती है। अपने भाव सृजन में वह समाज में व्याप्त युगीन पीड़ाओं को समाविष्ट करती है, फिर उससे बाहर निकलने का सुगम पथ प्रदान करती है। लौटना जरूर के कलेवर की प्रत्येक कविता आधुनिक समाज से घात-प्रतिघात करती आगे बढ़ती है। आज विश्व के एकीकरण को समय है। सारे संसार के देशों में अंतः क्रियाऐ बढ़ी है फलतः लोग उन्नत रोजगार के लिए हजारों मील दूर प्रवास करते है। अपना जीवन स्तर उत्तम बनाते है। अपनी ज्ञान शक्ति से अपना व अपने देश के गौरव में श्री वृद्धि करते है। इस प्रवास का एक अन्य पक्ष भी है वह है इन प्रवासियों का अपने परिवार से पृथक हो जाना। अपनों से दूर चले जाना। ये प्रवासी युवा तो अपनी कार्यगतिविधि के माध्यम से अन्यत्र की संस्कृति और जीवन से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं लेकिन अपने मूल स्थान पर छोड़कर आए माता-पिता, दादा-दादी को केवल यादों का ही सहारा शेष रह जाता है। वह इनकी बालपन की क्रीड़ाओं की याद में अपना शेष जीवन व्यतीत करते हैं केवल इस आशा में कि उनसे वर्ष दो वर्ष में मिलना हो जाता है। धीरे-धीरे यह वर्षों का क्रम बढ़ता जाता है और मूल परिवार के सदस्यों की आयु भी बढ़ती जाती है। जब देह त्यागने का समय आता है तब उन्हें सबसे ज्यादा याद अपनी संतानों की आती है जो यहां से गयी तो काम के सिलसिले में थी लेकिन वहीं की होकर रह गयी। इस एकाकी जीवन के संत्रास को हमारे बुजुर्ग लगातार भोग रहे हैं; आंख में रात में आंसुओं की आर्द्रता है। क्योंकि दिन में किसी ने देख लिया तो लोग क्या कहेंगे? इस बात की चिंता है। उनके बच्चों को कोई निर्मोही न करें। ऐसा शाश्वत प्रेम लौटना जरूर में व्यक्त हुआ है-
"दूर चले गए हो तो
अपने जन्म स्थान पर
एक बार लौटना जरूर।""
लौटना जरूर संकलन में स्पष्ट संदेश है कि जैसे पशु रात होने पर वापस अपने निवास आ जाता है पक्षी अपने नीड़ की ओर चल पड़ते हैं वैसे ही हमारी युवा पीढ़ी को अपनी रोजगारमूलक अपेक्षाऐं पूरी हो जाने के बाद अपने वतन, अपने घर लौटना चाहिए। क्योंकि मनुष्य जीवन केवल खाने-पीने के लिए ही नहीं बना है मनुष्य जैविक प्राणी से बढ़कर एक सामाजिक सांस्कृतिक प्राणी है। जिसके लिए उसे अपने भावों में रागात्मक तत्वों को जागृत बनाए रखना चाहिए। इन रागात्मक
तत्वों का विस्तार कैसे हो उन्हें जीवंत कैसे बनाए रखा जाए? इस बात की चिंता समूचे रचना विधान में देखी जा सकती है।
वाह्य राष्ट्रो की संगति से जब हमारी संताने वापस आती है तब हम उन्हें उनकी बचपन की क्रीड़ाओं से, चढ़ने उतरने वाले वृक्षों से, कूदने वाली दीवारों से, स्कूली सहपाठियों से अपनी परम्परा की थाती से मिलाते रहे जिससे उनके हृदय का रागात्मक रस सूखने न पावे और वह अपने देश के लिए अपने परिवार के लिए स्मृतियां न रखाकर अपना अंतिम पढ़ाव अपने देश को ही स्वीकार कहूं। माँ गंगा, नर्मदा की महिमा, संस्कारिक श्रेष्ठता के भाव जब उनके अंतरू में स्थापित हो जायेंगे तो निश्चित् है 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी' के भावों से वह बार-बार लौटकर मातृवंदना करते रहेंगे।
जब मनुष्य अपने मूल में होता है तो वह न केवल स्वनाम से जाना जाता है अपितु उससे भी आत्मीय बचपन के नाम से उसे पुकारा जाता है। जबकि अन्य स्थानों पर उसे पद, गाड़ी, बंगले से पहचाना जाता है उसका 'स्व' कुछ भी नहीं होता केवल कृत्रिमता का दिखावा ही उसे संज्ञेय करता है। वह स्व के लिए छटपटाता है लेकिन झूठे पथ को छोड़ नहीं पाता-
"इंतजार कर रही हूं........
आदमी कब पहचाना जाएगा
उसकी कामना से उसकी भावना से।।2
अपनों से दूर आत्मीयता का ताना-बाना बहुत कमजोर होता है विदेशों में गए भारतीय वहां की बालाओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर लेते है तथा यौवन रति का पूर्ण आनन्द लेते हैं किन्तु यौवन रस में जरा सी तल्खी या वैचारिक उठापटक इस सम्बन्ध को समाप्त कर देती है। अस्तु वहां का जीवन केवल रति पर केन्द्रित है; रक्त और रस के भावों का वहां सर्वथा अभाव है। इन्हीं भावों की प्रेम वृष्टि के लिये हरे रामा हरे कृष्णा जैसे मिशन लगातार काम कर रहे हैं वैदेशिक प्रेम की छुई मुई अवस्था पर और उसके भारतीय लोकमन में प्रसार पर लेखिका ने चिंता व्यक्त की है
"उम्मीद थी प्रेम चलेगा
बरसों बरस तक
पता नहीं क्यों
मौसमी फल की तरह हो गया वो
कुछ दिन खूब आया और चला गया।"3
वस्तुतः प्रेम शाश्वत भाव है; जो नित्य है। वैदेशिक प्रेम तो मात्र शरीरी होता है। अतः शरीर के ढलते ही अनुराग के कण भी विखण्डित होने लगते हैं। हमें पुनः
भारतीय प्रेम की तरफ लौटना होगा जो राम को लंका विजय को उद्यत कर देता है ताकि सीता के सम्मान के प्रेम के आदर्श की स्थापना हो। हम बाहर जाऐं जरूर लेकिन लौटें भी जरूर, ऐसी अपेक्षा बलवती बनी रहनी चाहिए।
रचनाकार स्वयं नारी है अतः उन्होंने केवल नारी चिंतन नहीं किया अपितु उसे स्वयं जिया है इसीलिए उनके वाणी में नारीत्व के प्रेम, त्याग और समर्पण के भाव है तो वहीं नारी की सम्मानजनक स्थिति प्राप्त करने हेतु आवश्यक अपेक्षाओं के प्रति आग्रह भी है। आज भी हमारे घरों में महिलाओं को निर्णय में सहभागिता प्राप्त नहीं है। लड़की क्या पहनेगी? वह क्या पढ़ेगी? वह किनसे सम्पर्क रखेगी? यह सब उसके परिवार के पुरूष तय करते है। आज भी आधुनिक शिक्षा के मूल्यों का प्रसार होने के बावजूद महिलाओं को सुरक्षितपेशे की ओर अभिप्रेरित किया जाता है। उनके शारीरिक और लैंगिक आधार को दृष्टिगत रखकर उनके भविष्य की रचना संभाव्य होती है न कि उनके बौद्धिक मनोबल से; इसी को उजागर करती ये पंक्तियों बरवस हमारे मन में करूणा और क्रोध के भावों को जागृत कर देती है-
"नहीं जानती थी विषय चयन का अधिकार मुझे नहीं
सबकी राय से विषय गृह विज्ञान चुना गया
नहीं बन सकती थी मैं इंजीनियर।"
इस विषमतावादी परिस्थिति को परखकर मधुजी के मन में एक भावना घर कर जाती है कि महिलाओं को केवल अधिकार प्रदान करना ही पूर्णता नहीं है वरन् उन अधिकारों की प्राप्ति के लिये भी उन्हें जागृत करना होगा। इसके लिए आवश्यक है कि हम उन्हें व्यापारिक शिक्षा दें और उनकी परवरिस समानतामूलक मूल्यों के साथ करें। उन्हें गुड़ियों के साथ गन का प्रयोग की सिखाऐं तथा किचिन के साथ कोर्ट रूम के उपयोग हेतु भी सक्षम बनाऐं यह तभी संभव है जब उनकी शिक्षा बहुआयामी हो, समतामूलक हो। जैसे:-
"अपनी बेटी को
सिखा रही थी
ससे
सहनशीलता
सहमति
समझ
समझौता
सिर झुकाना
स से आगे ह भी पढ़ा रही थी
ह से
हक
हकीकत
हिम्मत
हौसला
हुनर
वैधानिक कानूनों का प्रसार यहां उल्लेखित 'ह' के ज्ञान के अभाव में अधूरा है जिसे पूरा करने की चाह नारी जाति में सदियों से प्रतीक्षित है यहां मधुजी ने केवल नारी की ही चिंता नहीं की अपितु पशुओं में मादा जाति की दशा को देखकर उनका मन आर्द्र होता रहा है। इसीलिए वह जब दूध के लिऐ गाय, भैंस को दिए जा रहे आक्सीटोसिन के प्रहार को देखती है तो उनका मन संवेदना के धरातल पर उतर आता है वह कह उठती है-
"अन चाहे सांडों से गर्भवती होती रही
दूध देती रही
सहती रही...... हार्मोन्स के इंजेक्शन का दर्द।
समग्रतः लौटना जरूर रचना में मनुष्य से अपने सहज रागात्मक जीवन जीने की बात की गयी है क्रत्रिमता और बुद्धिमत्ता के आडम्बर से बाहर का जीवन ही मनुज जीवन है। वह वस्तु नहीं है, यंत्र नहीं है। अतः अपनों के साथ अपनों के लिए जीने का आनन्द ही वास्तविक आनन्द है हम अपनी जड़ों से जुड़े और अपने जीवन की सार्थकता को प्राप्त करें यहीं आधुनिक मनुष्य को जीवन जीने का मूलमंत्र है। आनंद के लिए अपनी जड़ों और बड़ों से जुडे रहिए।
डॉ. लोकेश तिवारी
(वरिष्ठ साहित्यकार)
एक्साइज इंस्पेक्टर ग्वालियर
मोबा. 70676-34545